शहर Poetry (page 89)

क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया

अहमद फ़राज़

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

अहमद फ़राज़

क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा

अहमद फ़राज़

पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच

अहमद फ़राज़

नज़र बुझी तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गए

अहमद फ़राज़

मिसाल-ए-दस्त-ए-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है

अहमद फ़राज़

जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो

अहमद फ़राज़

जब यार ने रख़्त-ए-सफ़र बाँधा कब ज़ब्त का पारा उस दिन था

अहमद फ़राज़

जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए

अहमद फ़राज़

इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की

अहमद फ़राज़

हम भी शाएर थे कभी जान-ए-सुख़न याद नहीं

अहमद फ़राज़

हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू

अहमद फ़राज़

हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला

अहमद फ़राज़

फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस से कुछ भला न हुआ

अहमद फ़राज़

दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए

अहमद फ़राज़

दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ

अहमद फ़राज़

बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए

अहमद फ़राज़

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी

अहमद फ़राज़

अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था

अहमद फ़राज़

अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए

अहमद फ़राज़

अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है

अहमद फ़राज़

अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ

अहमद फ़राज़

वक़्त के हर इक नक़्श का मअ'नी इतना बदला बदला होगा

अहमद फ़क़ीह

सदियों के अँधेरे में उतारा करे कोई

अहमद फ़क़ीह

मैं क्या हूँ मुझे तुम ने जो आज़ार पे खींचा

अहमद फ़क़ीह

उस पार तो ख़ैर आसमाँ है

अहमद अज़ीमाबादी

किसे ख़बर कि है क्या क्या ये जान थामे हुए

अहमद अज़ीम

दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया

अहमद अज़ीम

ऐसा इलाज-ए-हब्स-ए-दिल-ए-ज़ार चाहिए

अहमद अज़ीम

वही दरिंदा

अहमद आज़ाद

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