तलवार Poetry (page 1)

तेज़ है मेरा क़लम तलवार से

एज़ाज़ काज़मी

वारिस

मुबश्शिर अली ज़ैदी

ज़ाबता

हबीब जालिब

मैं ज़ेर-ए-लब अपना शजरा-ए-नसब दोहरा रहा था

जवाज़ जाफ़री

ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था

ज़ुबैर रिज़वी

फ़ोन तो दूर वहाँ ख़त भी नहीं पहुँचेंगे

ज़िया मज़कूर

यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

मैं जब भी तिरे शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार से निकला

ज़िया फ़ारूक़ी

ये एक मोहब्बत है

ज़ीशान साहिल

ईरीना

ज़ीशान साहिल

उस के क़ुर्ब के सारे ही आसार लगे

ज़ेब ग़ौरी

ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ

ज़ेब ग़ौरी

है सदफ़ गौहर से ख़ाली रौशनी क्यूँकर मिले

ज़ेब ग़ौरी

एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती

ज़ेब ग़ौरी

करेंगे सब ये दा'वा नक़्द-ए-दिल जो हार बैठे हैं

ज़रीफ़ लखनवी

अमीरों के बुरे अतवार को जो ठीक समझे है

ज़मीर अतरौलवी

रौशनी लटकी हुई तलवार सी

ज़काउद्दीन शायाँ

क़यामत का कोई हंगाम उभरे

ज़काउद्दीन शायाँ

हर घड़ी चलती है तलवार तिरे कूचे में

ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़

हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं

ज़हरा क़रार

हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं

ज़हरा क़रार

परवाना जल के साहब-ए-किरदार बन गया

ज़हीर काश्मीरी

ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था

ज़फ़र इक़बाल

हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता

ज़फ़र इक़बाल

मरते दम तक तिरी तलवार का दम भरते रहे

यगाना चंगेज़ी

वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला

यगाना चंगेज़ी

काम दीवानों को शहरों से न बाज़ारों से

यगाना चंगेज़ी

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