मुझे फ़र्दा की फ़िक्र क्यूँ-कर हो
ग़म-ए-इमरोज़ खाए जाता है
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चाँद
तारों का गो शुमार में आना मुहाल है
असर देखा दुआ जब रात भर की
वतन का राग
जिन को हर हालत में ख़ुश और शादमाँ पाता हूँ मैं
है तेरे लिए सारा जहाँ हुस्न से ख़ाली
जब सफ़र 'अफ़सर' कभी करते नहीं
यास है हसरत है ग़म है और शब-ए-दीजूर है
हाए वो जिस की उम्मीदें हों ख़िज़ाँ पर मौक़ूफ़
सुख में होता है हाफ़िज़ा बेकार
आग़ाज़ हुआ है उल्फ़त का अब देखिए क्या क्या होना है