Ghazal Poetry (page 920)

यही नहीं कि फ़क़त प्यार करने आए हैं

आग़ा निसार

अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का

आफ़ताबुद्दौला लखनवी क़लक़

क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं

आफ़ाक़ सिद्दीक़ी

वहाँ शायद कोई बैठा हुआ है

आदिल रज़ा मंसूरी

सफ़र के ब'अद भी मुझ को सफ़र में रहना है

आदिल रज़ा मंसूरी

रास्ते सिखाते हैं किस से क्या अलग रखना

आदिल रज़ा मंसूरी

पाँव पत्तों पे धीरे से धरता हुआ

आदिल रज़ा मंसूरी

जो अश्क बन के हमारी पलक पे बैठा था

आदिल रज़ा मंसूरी

एक इक लम्हे को पलकों पे सजाता हुआ घर

आदिल रज़ा मंसूरी

दिन के सीने पे शाम का पत्थर

आदिल रज़ा मंसूरी

चाँद तारे बना के काग़ज़ पर

आदिल रज़ा मंसूरी

आँधियाँ ग़म की चलीं और कर्ब-बादल छा गए

अाबिदा उरूज

गुज़रे जो अपने यारों की सोहबत में चार दिन

ए जी जोश

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