मालूम हुआ कैसे ख़िज़ाँ आती है गुल पर
सीखा है बिखरना तिरे इंकार से मैं ने
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'हसन-जमील' तिरा घर अगर ज़मीन पे है
दश्त में फूल खिला रक्खा है
तिरी जुदाई ने ये क्या बना दिया है मुझे
अभी वो ख़ुद को ही देखे जाता है आइने में
तिलिस्म-ए-आतिश-ए-ग़म आज़माने वाला हो
ज़िंदगी भर दर-ओ-दीवार सजाए जाएँ
ये रौशनी यूँही आग़ोश में नहीं आती
नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है
अर्सा-ए-उम्र मिले वुसअ'त-ए-वीराँ में मुझे
कोई दानाइयों को हेच जाने
कितनी बे-रंग थी दुनिया मिरे ख़्वाबों की 'जमील'