फ़रेब-ए-क़ुर्ब-ए-यार हो कि हसरत-ए-सुपुर्दगी
किसी सबब से दिल मुझे ये बे-क़रार चाहिए
Wasi Shah
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ख़ार चुनते हुए
इज़्हार-ए-जुनूँ बर-सर-ए-बाज़ार हुआ है
लम्हा-ए-इमकान को पहलू बदलते देखना
सुनाओ मुझे भी एक लतीफ़ा
हम दोनों में से एक
रात के पड़ाव पर
जान के एवज़
तरीक़ कोई न आया मुझे ज़माने का
कोई आवाज़ नहीं
बे-रहम शायरों के जुर्म
इंतिज़ार
टूटी है ये कश्ती तो मिरे साथ सफ़र को