दीवार Poetry (page 25)

अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक

सबा अकबराबादी

आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए

सबा अकबराबादी

मोहब्बत का सफ़र हे और मैं हूँ

रिज़वानूरर्ज़ा रिज़वान

किनारा-दर-किनारा मुस्तक़िल मंजधार है यूँ भी

रियाज़ लतीफ़

रंग पर कल था अभी लाला-ए-गुलशन कैसा

रियाज़ ख़ैराबादी

रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर

रियाज़ ख़ैराबादी

ख़्वाब में भी नज़र आ जाए जो घर की सूरत

रियाज़ ख़ैराबादी

जफ़ा में नाम निकालो न आसमाँ की तरह

रियाज़ ख़ैराबादी

गुल मुरक़्क़ा' हैं तिरे चाक गरेबानों के

रियाज़ ख़ैराबादी

फ़रियाद-ए-जुनूँ और है बुलबुल की फ़ुग़ाँ और

रियाज़ ख़ैराबादी

छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल

रियाज़ ख़ैराबादी

उदास उदास थे हम उस को इक ज़माना हुआ

रिन्द साग़री

यार आया है अहवाल-ए-दिल-ए-ज़ार दिखाओ

रिन्द लखनवी

इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं

रिफ़अत सुलतान

फिर तुम रुख़-ए-ज़ेबा से नक़ाब अपने उठा दो

रिफ़अत सेठी

जो सोचता हूँ अगर वो हवा से कह जाऊँ

रियाज़ मजीद

मैं कार-आमद हूँ या बे-कार हूँ मैं

रहमान फ़ारिस

क्यूँ तिरे साथ रहीं उम्र बसर होने तक

रहमान फ़ारिस

क्या से क्या हो गई इस दौर में हालत घर की

रहबर जौनपूरी

मैं हूँ मेरी चश्म-ए-तर है रात है तंहाई है

राज़िक़ अंसारी

सौ रहा था तो शोर बरपा था

रज़ी तिर्मिज़ी

दहका पड़ा है जामा-ए-गुल यार ख़ैर हो

रज़ी रज़ीउद्दीन

ख़ुद-निगर थे और महव-ए-दीद-ए-हुस्न-ए-यार थे

रज़ी मुजतबा

शायद अब रूदाद-ए-हुनर में ऐसे बाब लिखे जाएँगे

राज़ी अख्तर शौक़

रोज़ इक शख़्स चला जाता है ख़्वाहिश करता

राज़ी अख्तर शौक़

कुछ लोग समझने ही को तयार नहीं थे

राज़ी अख्तर शौक़

कभी ख़ुर्शीद-ए-ज़िया-बार हूँ मैं

राज़ी अख्तर शौक़

जिस पल मैं ने घर की इमारत ख़्वाब-आसार बनाई थी

राज़ी अख्तर शौक़

इन्ही गलियों में इक ऐसी गली है

राज़ी अख्तर शौक़

रैलियाँ ही रैलियाँ

रज़ा नक़वी वाही

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