दिन Poetry (page 2)

लोग सब क़ीमती पोशाक पहन कर पहुँचे

वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी

बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

बे-मुरव्वत हैं तो वापस ही उठा ले शब-ओ-रोज़

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

ये शोर-ओ-शर तो पहले दिन से आदम-ज़ाद में है

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

यूँ उठे इक दिन कि लोगों को हुआ

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

दश्त-ओ-दरिया की इब्तिदा से हैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

ये रास्ते में जो शब खड़ी है हटा रहा हूँ मुआफ़ करना

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

वो बूढ़ा इक ख़्वाब है और इक ख़्वाब में आता रहता है

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

सो लेने दो अपना अपना काम करो चुप हो जाओ

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

शब में दिन का बोझ उठाया दिन में शब-बेदारी की

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

रात गुज़री न कम सितारे हुए

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

मैं जहाँ था वहीं रह गया माज़रत

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

कभी ख़ुशबू कभी आवाज़ बन जाना पड़ेगा

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

जाने हम ये किन गलियों में ख़ाक उड़ा कर आ जाते हैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

अश्क गिरने की सदा आई है

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है

ज़ुहूर नज़र

ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है

ज़ुहूर नज़र

ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी

ज़ुहूर नज़र

घर नहीं बस्ती नहीं शोर-ए-फ़ुग़ाँ चारों तरफ़ है

ज़ुबैर शिफ़ाई

रद्द-ए-अमल

ज़ुबैर रिज़वी

कुत्तों का नौहा

ज़ुबैर रिज़वी

अलिफ़ ज़बर अ

ज़ुबैर रिज़वी

अली-बिन-मुत्तक़ी रोया

ज़ुबैर रिज़वी

मिलन मौसमों की सज़ा चाहता हूँ

ज़ुबैर रिज़वी

लोग कहते हैं यहाँ एक हसीं रहता था

ज़ुबैर फ़ारूक़

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