दिया Poetry (page 6)

कनीज़-ए-वक़्त को नीलाम कर दिया सब ने

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

दिल-ओ-निगाह को वीरान कर दिया मैं ने

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी

ज़फ़र इक़बाल

वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे

ज़फ़र इक़बाल

मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया

ज़फ़र इक़बाल

मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है

ज़फ़र इक़बाल

लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली

ज़फ़र इक़बाल

कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे

ज़फ़र इक़बाल

अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ

ज़फ़र इक़बाल

आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने

ज़फ़र इक़बाल

उसी से आए हैं आशोब आसमाँ वाले

ज़फ़र इक़बाल

न गुमाँ रहने दिया है न यक़ीं रहने दिया

ज़फ़र इक़बाल

मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया

ज़फ़र इक़बाल

लर्ज़िश-ए-पर्दा-ए-इज़हार का मतलब क्या है

ज़फ़र इक़बाल

कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था

ज़फ़र इक़बाल

कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है

ज़फ़र इक़बाल

किस नए ख़्वाब में रहता हूँ डुबोया हुआ मैं

ज़फ़र इक़बाल

जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया

ज़फ़र इक़बाल

जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया

ज़फ़र इक़बाल

हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए

ज़फ़र इक़बाल

है कोई इख़्तियार दुनिया पर

ज़फ़र इक़बाल

बस एक बार किसी ने गले लगाया था

ज़फ़र इक़बाल

बात ऐसी भी कोई नहीं कि मोहब्बत बहुत ज़ियादा है

ज़फ़र इक़बाल

अभी तो करना पड़ेगा सफ़र दोबारा मुझे

ज़फ़र इक़बाल

आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ

ज़फ़र इक़बाल

इक नदी में सैकड़ों दरिया की तुग़्यानी मिली

ज़फर इमाम

फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को

ज़फ़र गोरखपुरी

सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें

ज़फ़र गोरखपुरी

कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं

ज़फ़र गोरखपुरी

जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी

ज़फ़र गोरखपुरी

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