घर Poetry (page 63)

दोस्तों में वाक़ई ये बहस भी अक्सर हुई

इक़बाल उमर

छतों पे आग रही बाम-ओ-दर पे धूप रही

इक़बाल उमर

मिरे घर से ज़ियादा दूर सहरा भी नहीं लेकिन

इक़बाल साजिद

तुम मुझे भी काँच की पोशाक पहनाने लगे

इक़बाल साजिद

सरसब्ज़ दिल की कोई भी ख़्वाहिश नहीं हुई

इक़बाल साजिद

पता कैसे चले दुनिया को क़स्र-ए-दिल के जलने का

इक़बाल साजिद

जाने क्यूँ घर में मिरे दश्त-ओ-बयाबाँ छोड़ कर

इक़बाल साजिद

ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला

इक़बाल साजिद

ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला

इक़बाल साजिद

दुनिया ने ज़र के वास्ते क्या कुछ नहीं किया

इक़बाल साजिद

दहर के अंधे कुएँ में कस के आवाज़ा लगा

इक़बाल साजिद

बे-ख़बर दुनिया को रहने दो ख़बर करते हो क्यूँ

इक़बाल साजिद

ऐसे घर में रह रहा हूँ देख ले बे-शक कोई

इक़बाल साजिद

हर मोड़ नई इक उलझन है क़दमों का सँभलना मुश्किल है

इक़बाल सफ़ी पूरी

फेंक दे बाहर की जानिब अपने अंदर की घुटन

इक़बाल नवेद

अब इतनी ज़ोर से हर घर पे दस्तकें देना

इक़बाल नवेद

ज़मीं मदार से अपने अगर निकल जाए

इक़बाल नवेद

ये ज़मीं हम को मिली बहते हुए पानी के साथ

इक़बाल नवेद

रात भर कोई न दरवाज़ा खुला

इक़बाल नवेद

नगर में रहते थे लेकिन घरों से दूर रहे

इक़बाल मिनहास

न कोई ग़ैर न अपना दिखाई देता है

इक़बाल मिनहास

बगूलों की सफ़ें किरनों के लश्कर सामने आए

इक़बाल माहिर

आँखों के चराग़ वारते हैं

इक़बाल ख़ुसरो क़ादरी

करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें

इक़बाल कौसर

खोए गए तो आइने को मो'तबर किया

इक़बाल हैदर

सफ़र पे निकले हैं हम पूरे एहतिमाम के साथ

इक़बाल अज़ीम

जब घर की आग बुझी तो कुछ सामान बचा था जलने से

इक़बाल अज़ीम

वो यूँ मिला कि ब-ज़ाहिर ख़फ़ा ख़फ़ा सा लगा

इक़बाल अज़ीम

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था सर-ए-बज़्म रात ये क्या हुआ

इक़बाल अज़ीम

कुछ ऐसे ज़ख़्म भी दर-पर्दा हम ने खाए हैं

इक़बाल अज़ीम

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