हाथ Poetry (page 4)

इसी दर से इसी दीवार से आगे नहीं बढ़ता

ज़िशान मेहदी

रात की ख़ामोशी का माथा ठंका था

ज़िशान इलाही

फैली हुई है सारी दिशाओं में रौशनी

ज़ीशान साजिद

ज़ख़्म लगा कर उस का भी कुछ हाथ खुला

ज़ेब ग़ौरी

मैं ने देखा था सहारे के लिए चारों तरफ़

ज़ेब ग़ौरी

मैं तो चाक पे कूज़ा-गर के हाथ की मिट्टी हूँ

ज़ेब ग़ौरी

उस के क़ुर्ब के सारे ही आसार लगे

ज़ेब ग़ौरी

शोला-ए-मौज-ए-तलब ख़ून-ए-जिगर से निकला

ज़ेब ग़ौरी

रात दमकती है रह रह कर मद्धम सी

ज़ेब ग़ौरी

नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई

ज़ेब ग़ौरी

मुराद-ए-शिकवा नहीं लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू के सिवा

ज़ेब ग़ौरी

मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है

ज़ेब ग़ौरी

मैं अक्स-ए-आरज़ू था हवा ले गई मुझे

ज़ेब ग़ौरी

लगाऊँ हाथ तुझे ये ख़याल-ए-ख़ाम है क्या

ज़ेब ग़ौरी

ख़ंजर चमका रात का सीना चाक हुआ

ज़ेब ग़ौरी

है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी

ज़ेब ग़ौरी

एक किरन बस रौशनियों में शरीक नहीं होती

ज़ेब ग़ौरी

भड़कती आग है शो'लों में हाथ डाले कौन

ज़ेब ग़ौरी

ये तरक़्क़ी का ज़माना है तिरे आशिक़ पर

ज़रीफ़ जबलपूरी

मैकनिक शाएर

ज़रीफ़ जबलपूरी

याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था

ज़की काकोरवी

कहाँ दिन रात में रक्खा हुआ हूँ

ज़करिय़ा शाज़

धूप सरों पर और दामन में साया है

ज़करिय़ा शाज़

कितनी ताबीरों के मुँह उतरे पड़े हैं

ज़का सिद्दीक़ी

उस पे करना मिरे नालों ने असर छोड़ दिया

ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़

सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो

ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़

रखी न गई दिल में कोई बात छुपा कर

ज़हरा क़रार

हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं

ज़हरा क़रार

हक़ीक़तों को फ़साना नहीं बनाती मैं

ज़हरा क़रार

आप ने हाथ रक्खा मिरे हात पर

ज़ाहिदुल हक़

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