जान Poetry (page 38)

पुराने जूते

ग़ुलाम अहमद फ़रीद

अजब इंक़लाब का दौर है कि हर एक सम्त फ़िशार है

ग़ुबार भट्टी

सुख़न का लहजा गुमान-ख़ाने में रह गया है

ग़ज़नफ़र हाशमी

लिपट रही हैं जो तुझ से दुआएँ मेरी हैं

ग़यास अंजुम

तुम्हें ख़बर भी है ये तुम ने किस से क्या माँगा

ग़नी एजाज़

तीर जैसे कमान से निकला

ग़नी एजाज़

न पूछ हिज्र में जो हाल अब हमारा है

ग़मगीन देहलवी

जो न वहम-ओ-गुमान में आवे

ग़मगीन देहलवी

अल्फ़ाज़-ए-बे-सदा का इम्कान आइने में

ग़ालिब इरफ़ान

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

ग़ालिब

तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना

ग़ालिब

ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'

ग़ालिब

रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे

ग़ालिब

क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़

ग़ालिब

है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से

ग़ालिब

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

ग़ालिब

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

ग़ालिब

वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

ग़ालिब

शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है

ग़ालिब

पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का

ग़ालिब

क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़

ग़ालिब

क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है

ग़ालिब

कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए

ग़ालिब

जराहत तोहफ़ा अल्मास अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया

ग़ालिब

है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से

ग़ालिब

गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है

ग़ालिब

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर

ग़ालिब

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव

ग़ालिब

अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे

ग़ालिब

आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है

ग़ालिब

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