साथ Poetry (page 49)

सहरा में एक शाम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मोहब्बत की एक नज़्म

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हवाएँ अन-पढ़ हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

बारहवाँ खिलाड़ी

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये मो'जिज़ा भी किसी की दुआ का लगता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ये अब खुला कि कोई भी मंज़र मिरा न था

इफ़्तिख़ार आरिफ़

वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी

इफ़्तिख़ार आरिफ़

कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी

इफ़्तिख़ार आरिफ़

अब भी तौहीन-ए-इताअत नहीं होगी हम से

इफ़्तिख़ार आरिफ़

क़ुर्बान जाऊँ हुस्न-ए-क़मर इंतिसाब के

इफ़तिख़ार अहमद फख्र

अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था

इफ़्फ़त ज़र्रीं

अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता

इफ़्फ़त ज़र्रीं

दर्द का दिल का शाम का बज़्म का मय का जाम का

इदरीस बाबर

आज तो जैसे दिन के साथ दिल भी ग़ुरूब हो गया

इदरीस बाबर

मैं कुछ दिनों में उसे छोड़ जाने वाला था

इदरीस बाबर

किसी के हाथ कहाँ ये ख़ज़ाना आता है

इदरीस बाबर

दिल में है इत्तिफ़ाक़ से दश्त भी घर के साथ साथ

इदरीस बाबर

अजब है खेल कैरम का

इब्न-ए-मुफ़्ती

वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं

इब्न-ए-इंशा

बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ

इब्न-ए-इंशा

ये बातें झूटी बातें हैं

इब्न-ए-इंशा

कुछ दे इसे रुख़्सत कर

इब्न-ए-इंशा

इस बस्ती के इक कूचे में

इब्न-ए-इंशा

ऐ मिरे सोच-नगर की रानी

इब्न-ए-इंशा

सुनते हैं फिर छुप छुप उन के घर में आते जाते हो

इब्न-ए-इंशा

जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली हम लोगों ने इश्क़ ईजाद किया

इब्न-ए-इंशा

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो

इब्न-ए-इंशा

शाम छत पर उतर गई होगी

हुसैन माजिद

रह-ए-तलब में बड़ी तुर्फ़गी के साथ चले

हुरमतुल इकराम

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