यार Poetry (page 8)

'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक

ताबिश देहलवी

शर्मिंदा हम जुनूँ से हैं एक एक तार के

ताबिश देहलवी

पाबंदी-ए-हुदूद से बेगाना चाहिए

ताबिश देहलवी

देखिए अहल-ए-मोहब्बत हमें क्या देते हैं

ताबिश देहलवी

बहुत जबीन-ओ-रुख़-ओ-लब बहुत क़द-ओ-गेसू

ताबिश देहलवी

यहाँ यार और बरदार कोई नहीं किसी का

ताबाँ अब्दुल हई

मुझे आता है रोना ऐसी तन्हाई पे ऐ 'ताबाँ'

ताबाँ अब्दुल हई

ले मेरी ख़बर चश्म मिरे यार की क्यूँ-कर

ताबाँ अब्दुल हई

है क्या सबब कि यार न आया ख़बर के तईं

ताबाँ अब्दुल हई

देख क़ासिद को मिरे यार ने पूछा 'ताबाँ'

ताबाँ अब्दुल हई

आता नहीं वो यार-ए-सितमगर तो क्या हुआ

ताबाँ अब्दुल हई

यार से अब के गर मिलूँ 'ताबाँ'

ताबाँ अब्दुल हई

तुम से अब कामयाब और ही है

ताबाँ अब्दुल हई

तू भली बात से ही मेरी ख़फ़ा होता है

ताबाँ अब्दुल हई

सुन फ़स्ल-ए-गुल ख़ुशी हो गुलशन में आइयाँ हैं

ताबाँ अब्दुल हई

क़फ़स से छूटने की कब हवस है

ताबाँ अब्दुल हई

नहीं कोई दोस्त अपना यार अपना मेहरबाँ अपना

ताबाँ अब्दुल हई

मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया

ताबाँ अब्दुल हई

लड़का जो ख़ूब-रू है सो मुझ से बचा नहीं

ताबाँ अब्दुल हई

कई दिन हो गए या-रब नहीं देखा है यार अपना

ताबाँ अब्दुल हई

इन ज़ालिमों को जौर सिवा काम ही नहीं

ताबाँ अब्दुल हई

हो रूह के तईं जिस्म से किस तरह मोहब्बत

ताबाँ अब्दुल हई

है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें

ताबाँ अब्दुल हई

ऐश सब ख़ुश आते हैं जब तलक जवानी है

ताबाँ अब्दुल हई

ऐसा कहाँ हुबाब कोई चश्म-ए-तर कि हम

ताबाँ अब्दुल हई

ता-सहर की है फ़ुग़ाँ जान के ग़ाफ़िल मुझ को

तअशशुक़ लखनवी

सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया

तअशशुक़ लखनवी

न डरे बर्क़ से दिल की है कड़ी मेरी आँख

तअशशुक़ लखनवी

महफ़िल से उठाने के सज़ा-वार हमीं थे

तअशशुक़ लखनवी

दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद

तअशशुक़ लखनवी

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