आई हवा न रास जो सायों के शहर की
हम ज़ात की क़दीम गुफाओं में खो गए
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ख़िरद की रह जो चला मैं तो दिल ने मुझ से कहा
शिरकत
लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
यूँ तो सौ तरह की मुश्किल सुख़नी आए हमें
दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
कभी नुमायाँ कभी तह-नशीं भी रहते हैं
बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की गिरहें खोलें
आरज़ू
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
अज़दवाजी ज़िंदगी भी और तिजारत भी अदब भी
मिरी झोली में वो लफ़्ज़ों के मोती डाल देता है
न मक़ामात न तरतीब-ए-ज़मानी अपनी