याद भी तेरी मिट गई दिल से
और क्या रह गया है होने को
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पस-मंज़र की आवाज़
कुछ काम नहीं है यहाँ वहशत के बराबर
तिरी दुनिया के नक़्शे में
गुरेज़ाँ था मगर ऐसा नहीं था
कभी तो ऐसा है जैसे कहीं पे कुछ भी नहीं
आख़िरी दिन से पहले
यक़ीन है कि गुमाँ है मुझे नहीं मालूम
मजीद-अमजद के लिए
आँखें तरस गई हैं
जो भी यकजा है बिखरता नज़र आता है मुझे
तू कहीं बैठ और हुक्म चला
राह दुश्वार भी है बे-सर-ओ-सामानी भी