मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
गोरे बदन पे उस के भी नीला निशान था
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ख़याल-ए-यार का सिक्का उछालने में गया
निज़ाम-ए-बस्त-ओ-कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं
मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं
ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहान था
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है
तिरे ख़याल के जब शामियाने लगते हैं
ख़बर भी है तुझे इस दफ़्तर-ए-मोहब्बत को
गर्द-बाद-ए-शरार हैं हम लोग
ग़ज़लों से तज्सीम हुई तकमील हुई