'अशहर' कहीं क़रीब ही तारीक ग़ार है
जुगनू की रौशनी को वहीं चल के छोड़ दें
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ज़िंदगी करना वो मुश्किल फ़न है 'अशहर' हाशमी
मेरी दुनिया में समुंदर का कहीं नाम नहीं
रहगुज़र भी तिरी पहले थी अजनबी
क्या क़द्र-ए-अना होगी जबीं जान रही है
वहीं के पत्थरों से पूछ मेरा हाल-ए-ज़िंदगी
तिरा ग़ुरूर झुक के जब मिला मिरे वजूद से
है कौन जिस से कि वादा ख़ता नहीं होता
उस से मिलने की तलब में जी लिए कुछ और दिन
शहर में छाई हुई दीवार-ता-दीवार थी
अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर
इक शहर ज़िया-बार यहाँ भी है वहाँ भी