उस के लबों की गुफ़्तुगू करते रहे सुबू सुबू
यानी सुख़न हुए तमाम यानी कलाम हो चुका
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बस एक बार वो आया था सैर करने को
''ला'' भी है एक गुमाँ
हुस्न अल्फ़ाज़ के पैकर में अगर आ सकता
मुझे कौन बुलाता रहता है
तेरी गली के मोड़ पे पहुँचे थे जल्द हम
कोई भी रस्ता किसी सम्त को नहीं जाता
ज़मीन पर न रहे आसमाँ को छोड़ दिया
ख़ुद-कुशी के पुल पर
बिछड़ के तुझ से तिरी याद भी नहीं आई
ज़िंदगी से मुकालिमा