बिछड़ के तुझ से तिरी याद भी नहीं आई
मकाँ की सम्त पलट कर मकीं नहीं आया
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ज़मीं ख़्वाब ख़ुश्बू
समझ रहा था मैं ये दिन गुज़रने वाला नहीं
हुस्न अल्फ़ाज़ के पैकर में अगर आ सकता
किन दरीचों के चराग़ों से हमें निस्बत थी
ख़ुद-कुशी के पुल पर
क़िस्सा तमाम
मुझे कौन बुलाता रहता है
दिल-ए-तबाह को अब तक नहीं यक़ीं आया
उसी ने चाँद के पहलू में इक चराग़ रखा
आईना देखते हो
देर हो गई
ज़मीन पर न रहे आसमाँ को छोड़ दिया