उसी ने चाँद के पहलू में इक चराग़ रखा
उसी ने दश्त के ज़र्रों को आफ़्ताब किया
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तुम्हारी याद निकलती नहीं मिरे दिल से
सारबाँ
तमाम उम्र हवा की तरह गुज़ारी है
राहदारी में गूँजती नज़्म
यूँ जगमगा उठा है तिरी याद से वजूद
बर्ग-ए-सदा को लब से उड़े देर हो गई
आहिस्ता से गुज़रो
किन दरीचों के चराग़ों से हमें निस्बत थी
अब तो कुछ भी याद नहीं
ज़मीन पर न रहे आसमाँ को छोड़ दिया
धुँद में डूबी सारी फ़ज़ा थी उस के बाल भी गीले थे
बदलते वक़्त ने बदले मिज़ाज भी कैसे