तमाम उम्र हवा की तरह गुज़ारी है
अगर हुए भी कहीं तो कभू कभू हुए हम
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मुझे कौन बुलाता रहता है
आईना देखते हो
हम एक दिन निकल आए थे ख़्वाब से बाहर
सब्र की चादर तह कर दी
तेरी गली के मोड़ पे पहुँचे थे जल्द हम
ज़मीन पर न रहे आसमाँ को छोड़ दिया
ज़िंदगी से मुकालिमा
समझ रहा था मैं ये दिन गुज़रने वाला नहीं
बदलते वक़्त ने बदले मिज़ाज भी कैसे
ख़ुद-कुशी के पुल पर
बिछड़ के तुझ से तिरी याद भी नहीं आई
बस एक बार वो आया था सैर करने को