गुज़रा मिरे क़रीब से वो इस अदा के साथ
रस्ते को छू के जिस तरह रस्ता गुज़र गया
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''ला'' भी है एक गुमाँ
बर्ग-ए-सदा को लब से उड़े देर हो गई
फिर वही शाम वही दर्द वही अपना जुनूँ
तेरी गली के मोड़ पे पहुँचे थे जल्द हम
सब खेल-तमाशा ख़त्म हुआ
सब्ज़ रुतों में क़दीम घरों की ख़ुशबू
बदन को ख़ाक किया और लहू को आब किया
सारबाँ
किसी के दिल में उतरना है कार-ए-ला-हासिल
उस के लबों की गुफ़्तुगू करते रहे सुबू सुबू
आईना देखते हो
वो और मैं....