कोई साग़र में देखता है फ़रार
कोई जिस्मों में ढूँढता है सुकूँ
मुझ को भी मिल गई है जा-ए-पनाह
शेर लिखता हूँ और जीता हूँ
Rahat Indori
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यूँ तो अक्सर ख़याल आता था
उस के चेहरे का अक्स पड़ता है
जब हवा शब को बदलती हुई पहलू आई
उस को किरनों ने दी है ताबानी
सुन के लोगों के ज़हर से फ़िक़रे
अल्लाह अल्लाह ये लर्ज़िश-ए-मिज़्गाँ
कफ़-ए-मोमिन से न दरवाज़ा-ए-दौराँ से मिला
कहानी
चले तो कट ही जाएगा सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
तिरी हँसी
हर इक ने कहा क्यूँ तुझे आराम न आया