दास्ताँ Poetry (page 10)

दर्द हल्का है साँस भारी है

गुलज़ार

दर्द जब जब जहाँ से गुज़रेगा

गोविन्द गुलशन

गिला क्या करूँ ऐ फ़लक बता मिरे हक़ में जब ये जहाँ नहीं

गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम

हर घड़ी बीमार हो कर रह गई

गोपाल कृष्णा शफ़क़

ये जहाँ-नवर्द की दास्ताँ ये फ़साना डोलते साए का

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

तिरी नवेद में हर दास्ताँ को सुनते हैं

ग़ुलाम मौला क़लक़

थक थक गए हैं आशिक़ दरमांदा-ए-फ़ुग़ाँ हो

ग़ुलाम मौला क़लक़

अगर ये रंगीनी-ए-जहाँ का वजूद है अक्स-ए-आसमाँ से

ग़ुलाम हुसैन साजिद

तसल्ली को हमारी बाग़बाँ कुछ और कहता है

ग़ुबार भट्टी

उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम

फ़िराक़ गोरखपुरी

शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया

फ़िराक़ गोरखपुरी

सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात

फ़िराक़ गोरखपुरी

कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में

फ़िराक़ गोरखपुरी

हदीस-ए-सोज़-ओ-साज़-ए-शम्-ओ-परवाना नहीं कहते

फ़िगार उन्नावी

चला हूँ अपनी मंज़िल की तरफ़ तो शादमाँ हो कर

फ़िगार उन्नावी

दास्तानों में मिले थे दास्ताँ रह जाएँगे

फ़ाज़िल जमीली

अब आ गए हो तो रफ़्तगाँ को भी याद रखना

फ़य्याज़ तहसीन

कैसे मुमकिन है कि क़िस्से जिस से सब वाबस्ता हों

फ़य्याज़ फ़ारुक़ी

राह में उस की चलें और इम्तिहाँ कोई न हो

फ़य्याज़ फ़ारुक़ी

मुनव्वर जिस्म-ओ-जाँ होने लगे हैं

फ़सीह अकमल

मैं अपने दिल की तरह आइना बना हुआ हूँ

फ़रताश सय्यद

ये गर्द-ए-राह ये माहौल ये धुआँ जैसे

फ़ारूक़ मुज़्तर

इस ज़मीं आसमाँ के थे ही नहीं

फ़ारूक़ बख़्शी

भले बुझाने की ज़िद पे हवा उड़ी हुई है

फ़राज़ महमूद फ़ारिज़

कभी यक़ीं से हुई और कभी गुमाँ से हुई

फ़राग़ रोहवी

तेरा निगाह-ए-शौक़ कोई राज़-दाँ न था

फ़ानी बदायुनी

बोला हैं रंग कितने ज़माने के और भी

फ़ाख़िरा बतूल

शोरिश-ए-ज़ंजीर बिस्मिल्लाह

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शाख़ पर ख़ून-ए-गुल रवाँ है वही

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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