केक Poetry (page 15)

ताज़गी है सुख़न-ए-कुहना में ये बाद-ए-वफ़ात

इमाम बख़्श नासिख़

दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं

इमाम बख़्श नासिख़

तुम्हारे जाते ही हर चश्म-ए-तर को देखते हैं

इमाम अाज़म

'इश्क़ी'-साहिब लिखना है तो कोई नई तहरीर लिखो

इलियास इश्क़ी

यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था

इफ़्तिख़ार आरिफ़

वफ़ा के बाब में कार-ए-सुख़न तमाम हुआ

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मिरे सारे हर्फ़ तमाम हर्फ़ अज़ाब थे

इफ़्तिख़ार आरिफ़

जब 'मीर' ओ 'मीरज़ा' के सुख़न राएगाँ गए

इफ़्तिख़ार आरिफ़

और हवा चुप रही

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ज़रा सी देर को आए थे ख़्वाब आँखों में

इफ़्तिख़ार आरिफ़

शहर-ए-गुल के ख़स-ओ-ख़ाशाक से ख़ौफ़ आता है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

सर-ए-बाम-ए-हिज्र दिया बुझा तो ख़बर हुई

इफ़्तिख़ार आरिफ़

मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ

इफ़्तिख़ार आरिफ़

जुनूँ का रंग भी हो शोला-ए-नुमू का भी हो

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हिज्र की धूप में छाँव जैसी बातें करते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ग़ैरों से दाद-ए-जौर-ओ-जफ़ा ली गई तो क्या

इफ़्तिख़ार आरिफ़

न दे जो दिल ही दुहाई तो कोई बात नहीं

इफ़तिख़ार अहमद फख्र

ख़मोश रह के ज़वाल-ए-सुख़न का ग़म किए जाएँ

इदरीस बाबर

गुल-ए-सुख़न से अँधेरों में ताब-कारी कर

इदरीस बाबर

न कू-ए-यार में ठहरा न अंजुमन में रहा

इब्राहीम अश्क

मैं कब रहीन-ए-रेग-ए-बयाबान-ए-यास था

इब्राहीम अश्क

माहौल से जैसे कि घुटन होने लगी है

हुसैन ताज रिज़वी

कभी आहें कभी नाले कभी आँसू निकले

होश तिर्मिज़ी

कोई मोनिस नहीं मेरा कोई ग़म-ख़्वार नहीं

हीरानंद सोज़

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए

हिमायत अली शाएर

ये बात तो नहीं है कि मैं कम स्वाद था

हिमायत अली शाएर

मेरा शुऊ'र मुझ को ये आज़ार दे गया

हिमायत अली शाएर

कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप से

हिमायत अली शाएर

इस शहर-ए-ख़ुफ़्तगाँ में कोई तो अज़ान दे

हिमायत अली शाएर

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