तुम आके लौट गए फिर भी हो यहीं मौजूद
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू मिरे मकान में है
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उस से पूछो अज़ाब रस्तों का
जो हैं मज़लूम उन को तो तड़पता छोड़ देते हैं
नाम ख़ुश्बू था सरापा भी ग़ज़ल जैसा था
अक़्ल-ओ-दानिश को ज़माने से छुपा रक्खा है
बेवफ़ाई उस ने की मेरी वफ़ा अपनी जगह
मिरा ख़ुलूस अभी सख़्त इम्तिहान में है
अपने ही ख़ून से इस तरह अदावत मत कर
कोई सुबूत-ए-जुर्म जगह पर नहीं मिला
ये बात सच है कि तेरा मकान ऊँचा है
न हो जिस पे भरोसा उस से हम यारी नहीं रखते
दिल लगाया है तो नफ़रत भी नहीं कर सकते