यूँ दर्द ने उम्मीद के लड़ से मुझे बाँधा
दरियाओं को जिस तरह किनारा करे कोई
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आज मुझे अपनी आँखों से उस के क़ुर्ब की ख़ुशबू आई
वक़्त के हर इक नक़्श का मअ'नी इतना बदला बदला होगा
वो जाता रहा और मैं कुछ बोल न पाया
मैं क्या हूँ मुझे तुम ने जो आज़ार पे खींचा
चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से
सदियों के अँधेरे में उतारा करे कोई
अहल-ए-ख़िरद इसे न समझ पाएँगे 'फ़क़ीह'