वो हज़ार हम पे जफ़ा सही कोई शिकवा फिर भी रवा नहीं

वो हज़ार हम पे जफ़ा सही कोई शिकवा फिर भी रवा नहीं

कि जफ़ा तो उन की ख़ता नहीं जिन्हें कोई क़द्र-ए-वफ़ा नहीं

मिरी बद-ज़नी पे ये रंजिशें तो किसी भी तौर बजा नहीं

कि जहान-ए-इश्क़ में बद-ज़नी तो हुज़ूर जुर्म-ओ-ख़ता नहीं

मिरे इश्क़ को तिरी बे-रुख़ी ही नसीब है तो यही सही

तिरी बे-रुख़ी रहे शादमाँ मुझे बे-रुख़ी का गिला नहीं

ये ग़लत कि महफ़िल-ए-नाज़ में कोई आश्ना-ए-नज़र न था

कोई तुम से कह तो रहा था कुछ मगर आह तुम ने सुना नहीं

उन्हें और इल्म-ए-रह-ए-वफ़ा ये यक़ीं भी आए तो किस तरह

कि उन्ही के दामन-ए-नाज़ पर कहीं ख़ाक-ए-राह-ए-वफ़ा नहीं

मिरे ऐ दिल-ए-अलम-आश्ना किसी वहम में न हो मुब्तला

तुझे रख सकेंगे वो याद क्या कभी जिन का दिल ही दुखा नहीं

ये मह-ए-दो-हफ़्ता की चाँदनी में दिल-ए-शिकस्ता की हसरतें

कभी मेरे दिल ही से पूछ लो जो तुम्हारे दिल को पता नहीं

ये कमाल-ए-जज़्बा-ओ-सर नहीं तिरे संग-ए-दर ही की बात है

तिरे एक दर पे जो झुक गया वो हज़ार दर पे झुका नहीं

उन्हें यूँ न दर से हटाइए उन्हें कुछ तो दे के ही टालिए

कि वही ग़रीब-ए-दयार हैं वो ग़रीब जिन का ख़ुदा नहीं

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