जिस तरफ़ तू है उधर होंगी सभी की नज़रें
ईद के चाँद का दीदार बहाना ही सही
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ऐ दिल-ए-बे-ख़बर
पसपा हुई सिपाह तो परचम भी हम ही थे
दश्त-ए-बे-आब की तरह गुज़री
तू नहीं तेरा इस्तिआरा नहीं
सवाल ये है कि आपस में हम मिलें कैसे
वो अभी अपने चेहरे में उतरा नहीं
रात मैं इस कश्मकश में एक पल सोया नहीं
कमाल-ए-हुस्न है हुस्न-ए-कमाल से बाहर
बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं
दश्त-ए-दिल में सराब ताज़ा हैं
साए ढलने चराग़ जलने लगे
तुम्हारा हाथ जब मेरे लरज़ते हाथ से छूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे