आईना-ए-रंगीन जिगर कुछ भी नहीं क्या
क्या हुस्न ही सब कुछ है नज़र कुछ भी नहीं क्या
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शम्अ' इक मोम के पैकर के सिवा कुछ भी न थी
ये दिल आवेज़ी-ए-हयात न हो
मोहिब्बान-ए-वतन का नारा
रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं
ख़मोशी साज़ होती जा रही है
अब और इस से सिवा चाहते हो क्या 'मुल्ला'
इश्क़ करता है तो फिर इश्क़ की तौहीन न कर
ख़ुदा जाने दुआ थी या शिकायत लब पे बिस्मिल के
वो दुनिया थी जहाँ तुम रोक लेते थे ज़बाँ मेरी
नज़र जिस की तरफ़ कर के निगाहें फेर लेते हो
न जाने कितनी शमएँ गुल हुईं कितने बुझे तारे