वो दुनिया थी जहाँ तुम रोक लेते थे ज़बाँ मेरी
ये महशर है यहाँ सुननी पड़ेगी दास्ताँ मेरी
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अब और इस के सिवा चाहते हो क्या 'मुल्ला'
सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले
ज़िंदगी गो कुश्ता-ए-आलाम है
मुख़्तसर अपनी हदीस-ए-ज़ीस्त ये है इश्क़ में
न जाने कितनी शमएँ गुल हुईं कितने बुझे तारे
जब दिल में ज़रा भी आस न हो इज़्हार-ए-तमन्ना कौन करे
गले लगा के किया नज़्र-ए-शो'ला-ए-आतिश
रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं
उस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
एक इक लम्हे में जब सदियों की सदियाँ कट गईं
ये दिल आवेज़ी-ए-हयात न हो
मोहब्बत फ़र्क़ खो देती है आ'ला और अदना का