उस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
उतना समझ सका जिसे जितना शुऊर था
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एक इक लम्हे में जब सदियों की सदियाँ कट गईं
छुप के दुनिया से सवाद-ए-दिल-ए-ख़ामोश में आ
रह-रवी है न रहनुमाई है
फ़र्क़ जो कुछ है वो मुतरिब में है और साज़ में है
जुनूँ का दौर है किस किस को जाएँ समझाने
गले लगा के किया नज़्र-ए-शो'ला-ए-आतिश
सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले
ख़ून-ए-जिगर के क़तरे और अश्क बन के टपकें
मोहब्बत फ़र्क़ खो देती है आ'ला और अदना का
रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं
आईना-ए-रंगीन जिगर कुछ भी नहीं क्या
शम्अ' इक मोम के पैकर के सिवा कुछ भी न थी