ख़ून-ए-जिगर के क़तरे और अश्क बन के टपकें
किस काम के लिए थे किस काम आ रहे हैं
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नज़र जिस की तरफ़ कर के निगाहें फेर लेते हो
दयार-ए-इश्क़ है ये ज़र्फ़-ए-दिल की जाँच होती है
दिल-ए-बेताब का अंदाज़-ए-बयाँ है वर्ना
उस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
तुम जिस को समझते हो कि है हुस्न तुम्हारा
आईना-ए-रंगीन जिगर कुछ भी नहीं क्या
फ़र्क़ जो कुछ है वो मुतरिब में है और साज़ में है
हम ने भी की थीं कोशिशें हम न तुम्हें भुला सके
मैं फ़क़त इंसान हूँ हिन्दू मुसलमाँ कुछ नहीं
मिरी बात का जो यक़ीं नहीं मुझे आज़मा के भी देख ले
अक़्ल के भटके होऊँ को राह दिखलाते हुए
इल्म-ओ-जाह-ओ-ज़ोर-ओ-ज़र कुछ भी न देखा जाए है