फ़र्क़ जो कुछ है वो मुतरिब में है और साज़ में है
वर्ना नग़्मा वही हर पर्दा-ए-आवाज़ में है
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निज़ाम-ए-मय-कदा साक़ी बदलने की ज़रूरत है
गले लगा के किया नज़्र-ए-शो'ला-ए-आतिश
ज़िंदगी गो कुश्ता-ए-आलाम है
उस इक नज़र के बज़्म में क़िस्से बने हज़ार
मैं फ़क़त इंसान हूँ हिन्दू मुसलमाँ कुछ नहीं
रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं
अब बन के फ़लक-ज़ाद दिखाते हैं हमें आँख
जब दिल में ज़रा भी आस न हो इज़्हार-ए-तमन्ना कौन करे
रह-रवी है न रहनुमाई है
सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले
मोहिब्बान-ए-वतन का नारा