इश्क़ में वो भी एक वक़्त है जब
बे-गुनाही गुनाह है प्यारे
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नज़र जिस की तरफ़ कर के निगाहें फेर लेते हो
निगाह-ओ-दिल का अफ़्साना क़रीब-ए-इख़्तिताम आया
न जाने कितनी शमएँ गुल हुईं कितने बुझे तारे
मिरी बातों पे दुनिया की हँसी कम होती जाती है
मिरी बात का जो यक़ीं नहीं मुझे आज़मा के भी देख ले
छुप के दुनिया से सवाद-ए-दिल-ए-ख़ामोश में आ
जब दिल में ज़रा भी आस न हो इज़्हार-ए-तमन्ना कौन करे
जिस के ख़याल में हूँ गुम उस को भी कुछ ख़याल है
अरमाँ को छुपाने से मुसीबत में है जाँ और
'मुल्ला' बना दिया है इसे भी महाज़-ए-जंग
एक इक लम्हे में जब सदियों की सदियाँ कट गईं
अश्क-ए-ग़म-ए-उल्फ़त में इक राज़-ए-निहानी है