'मुल्ला' बना दिया है इसे भी महाज़-ए-जंग
इक सुल्ह का पयाम थी उर्दू ज़बाँ कभी
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अक़्ल के भटके होऊँ को राह दिखलाते हुए
सर-ए-महशर यही पूछूँगा ख़ुदा से पहले
मोहब्बत फ़र्क़ खो देती है आ'ला और अदना का
आईना-ए-रंगीन जिगर कुछ भी नहीं क्या
निगाह-ओ-दिल का अफ़्साना क़रीब-ए-इख़्तिताम आया
हर इक सूरत पे धोका खा रही हैं तेरी सूरत का
न जाने कितनी शमएँ गुल हुईं कितने बुझे तारे
बशर को मशअ'ल-ए-ईमाँ से आगही न मिली
छुप के दुनिया से सवाद-ए-दिल-ए-ख़ामोश में आ
मैं फ़क़त इंसान हूँ हिन्दू मुसलमाँ कुछ नहीं
अब बन के फ़लक-ज़ाद दिखाते हैं हमें आँख
अब और इस के सिवा चाहते हो क्या 'मुल्ला'