शायर-ए-आज़म

ख़ब्त मुझ को शायरी का जब हुआ

दस मिनट में साठ ग़ज़लें कह गया

सब से रो रो कर कहा सुन लो ग़ज़ल

ताकि मैं हो जाऊँ फिर से नॉर्मल

रहम अपनों को न आया जब ज़रा

तो परेशाँ हो के होटल में गया

ताकि मिल जाए इक ऐसा आदमी

चाय पी कर जो सुने ग़ज़लें मिरी

जा के बैठा सात घंटे जब वहाँ

इक मुअज़्ज़ज़ शख़्स आए ना-गहाँ

देखते ही हो गया दिल बाग़ बाग़

अब तो होगा पेट हल्का और दिमाग़

ब'अद-अज़-आदाब और तस्लीम के

मैं ने उन से ये कहा ताज़ीम से

आइए तकलीफ़ इतनी कीजिए

चाय मेरे साथ ही पी लीजिए

आ के बैठे साथ जब की इल्तिजा

आप का जो हुक्म हो मंगवाओंगा

मुस्कुरा कर फिर तो बोले आँ-जनाब

मुर्ग़ यख़्नी क़ोरमा नर्गिस कबाब

शीरमाल ओ शाही टुकड़ा फेरनी

और अगर मिल जाए तो चूरन कोई

तोस मक्खन दूध काफ़ी राइता

अल-ग़रज़ जो कुछ कहा मँगवा लिया

नाक तक जब खा चुके मैं ने कहा

हो तआरुफ़ अब हमारा आप का

नाम है 'असरार' मेरा मोहतरम

सारी दुनिया जानती है बेश-ओ-कम

शायर-ए-आज़म हूँ मैं इज़्ज़त-मआब

वो ये बोले मैं तो बहरा हूँ जनाब

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