मुजस्समा

मैं एक पत्थर

मैं एक बे-जान सर्द पत्थर

जुमूद-ए-बेगांगी का मज़हर

अज़ल से हद्द-ए-नज़र को तकती हुई निगाहें

ख़ला में लटकी हुई ये बाहें

ज़मीं मुझे साथ ले के दुश्वार मंज़िलें लाखों घूम आई

करोड़ों राहों को चूम आई

फ़लक के साहिर ने कितने अफ़्सून मुझ पे फूंके

मिरे पस-ओ-पेश टिमटिमाते दिए जलाए

धुएँ के गहरे हिसार बाँधे

ख़ुदा-ए-मौसम ने हर्बा-हा-ए-बहार से मुझ को आज़माया

ख़िज़ाँ की सफ़्फ़ाक उँगलियों का हदफ़ बनाया

मगर मिरी बे-हिसी ने हर एक हमला-आवर का सर झुकाया

इसी गुज़रगाह पर हूँ इस्तादा और शायद यहीं रहूँगा

जहाँ से गुज़रे धड़कते लम्हों के कारवाँ

धीमे सुर में गाते

हयात-ए-ना-पाएदार के मरसिए सुनाते

मिरे बदन की अमीक़ सर्दी को सर्द से सर्द-तर बनाते

मैं कितनी सदियों से सोचता हूँ

कि कोई जुम्बिश

ज़रा सी लर्ज़िश

अगर मिरी मुंजमिद रगों में ख़ुदी की धीमी सी आँच भर दे

ये आँच लहरा के क्या न कर दे!

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Mujassama In Hindi By Famous Poet Aziz Tamannai. Mujassama is written by Aziz Tamannai. Complete Poem Mujassama in Hindi by Aziz Tamannai. Download free Mujassama Poem for Youth in PDF. Mujassama is a Poem on Inspiration for young students. Share Mujassama with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.