मुक़य्यद हो न जाना ज़ात के गुम्बद में यारो
किसी रौज़न किसी दरवाज़ा को वा छोड़ देना
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मैं ने क्या काम ला-जवाब किया
किस से मिलने जाओ अब किस से मुलाक़ातें करो
उस ने देखा था अजब एक तमाशा मुझ में
हथेलियों में लकीरों का जाल था कितना
ग़म भी उतना नहीं कि तुम से कहें
हम ने आँख से देखा कितने सूरज निकले डूब गए
अभी तमाम आइनों में ज़र्रा ज़र्रा आब है
सहर होते ही कोई हो गया रुख़्सत गले मिल कर
ऐसे ही दिन थे कुछ ऐसी शाम थी
धुँद का आँखों पर होगा पर्दा इक दिन
दूसरों की आँख ले कर भी पशेमानी हुई