'साबिर' तेरा कलाम सुनें क्यूँ न अहल-ए-फ़न
बंदिश अजब है और अजब बोल चाल है
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उन की मानिंद कोई साहब-ए-इदराक कहाँ
इधर भी देख ज़रा बे-क़रार हम भी हैं
तेरी तस्वीर को तस्कीन-ए-जिगर समझे हैं
है जो ख़ामोश बुत-ए-होश-रुबा मेरे बाद
तू जफ़ाओं से जो बदनाम किए जाता है
शगुफ़्ता बाग़-ए-सुख़न है हमीं से ऐ 'साबिर'
तुम ने क्यूँ दिल में जगह दी है बुतों को 'साबिर'
ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है