सारी रुस्वाई ज़माने की गवारा कर के
ज़िंदगी जीते हैं कुछ लोग ख़सारा कर के
Mir Taqi Mir
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Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
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Javed Akhtar
Gulzar
Habib Jalib
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तिरे ख़याल तिरी आरज़ू से दूर रहे
वो सब में हम को बार-ए-दिगर देखते रहे
ये उस की मर्ज़ी कि मैं उस का इंतिख़ाब न था
फ़ैसला हिज्र का मंज़ूर भी हो सकता है
ज़मीनों में सितारे बो रहा हूँ
दिल-मोहल्ला ग़ुलाम हो जाए
वो मिरे शहर में आता है चला जाता है
मुस्तक़िल हाथ मिलाते हुए थक जाता हूँ
दश्त में ख़ाक उड़ाते हैं दुआ करते हैं
तमाशा अहल-ए-मोहब्बत ये चार-सू करते
परिंदा क़ैद में कुल आसमान भूल गया
तू नहीं है तो तिरे हमनाम से रिश्ता रक्खा