शिकवा-ए-ग़म तिरे हुज़ूर किया
हम ने बे-शक बड़ा क़ुसूर किया
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हम जौर-परस्तों पे गुमाँ तर्क-ए-वफ़ा का
ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं
मुनहसिर वक़्त-ए-मुक़र्रर पे मुलाक़ात हुई
दीदनी हैं दिल-ए-ख़राब के रंग
ख़ंदा-ए-अहल-ए-जहाँ की मुझे पर्वा क्या है
छेड़ा है दस्त-ए-शौक़ ने मुझ से ख़फ़ा हैं वो
क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता
अक़्ल से हासिल हुई क्या क्या पशीमानी मुझे
बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की
है वहाँ शान-ए-तग़ाफ़ुल को जफ़ा से भी गुरेज़
ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी न की
निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करे