मुनहसिर वक़्त-ए-मुक़र्रर पे मुलाक़ात हुई
आज ये आप की जानिब से नई बात हुई
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दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया
दावा-ए-आशिक़ी है तो 'हसरत' करो निबाह
बेकली से मुझे राहत होगी
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
दिल में क्या क्या हवस-ए-दीद बढ़ाई न गई
लुत्फ़ की उन से इल्तिजा न करें
'हसरत' की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी
आईने में वो देख रहे थे बहार-ए-हुस्न
और तो पास मिरे हिज्र में क्या रक्खा है
शेर दर-अस्ल हैं वही 'हसरत'
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
क्या वो अब नादिम हैं अपने जौर की रूदाद से