दावा-ए-आशिक़ी है तो 'हसरत' करो निबाह
ये क्या के इब्तिदा ही में घबरा के रह गए
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वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
है इंतिहा-ए-यास भी इक इब्तिदा-ए-शौक़
मालूम सब है पूछते हो फिर भी मुद्दआ'
सितम हो जाए तम्हीद-ए-करम ऐसा भी होता है
कट गई एहतियात-ए-इश्क़ में उम्र
खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अतन
देखने आए थे वो अपनी मोहब्बत का असर
नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
तिरे दर्द से जिस को निस्बत नहीं है
निगाह-ए-यार जिसे आश्ना-ए-राज़ करे
हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें