हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें
दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या
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हक़ीक़त खुल गई 'हसरत' तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
कोशिशें हम ने कीं हज़ार मगर
दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया
ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
दुआ में ज़िक्र क्यूँ हो मुद्दआ का
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
छेड़ा है दस्त-ए-शौक़ ने मुझ से ख़फ़ा हैं वो
तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल
अल्लाह-री जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
ग़म-ए-आरज़ू का 'हसरत' सबब और क्या बताऊँ
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए