मालूम सब है पूछते हो फिर भी मुद्दआ'
अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम
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हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की
मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है
रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया
देखने आए थे वो अपनी मोहब्बत का असर
सियहकार थे बा-सफ़ा हो गए हम
हर हाल में रहा जो तिरा आसरा मुझे
'हसरत' जो सुन रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का हाल
बेकली से मुझे राहत होगी