मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल
फिर तू ने याद आ के ब-दस्तूर कर दिया
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दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी
दुआ में ज़िक्र क्यूँ हो मुद्दआ का
वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया
क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके
न सूरत कहीं शादमानी की देखी
क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता
वाक़िफ़ हैं ख़ूब आप के तर्ज़-ए-जफ़ा से हम
पुर्सिश-ए-हाल पे है ख़ातिर-ए-जानाँ माइल