रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम
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मुनहसिर वक़्त-ए-मुक़र्रर पे मुलाक़ात हुई
हक़ीक़त खुल गई 'हसरत' तिरे तर्क-ए-मोहब्बत की
उस बुत के पुजारी हैं मुसलमान हज़ारों
ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
नज़्ज़ारा-ए-पैहम का सिला मेरे लिए है
शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
ताबाँ जो नूर-ए-हुस्न ब-सिमा-ए-इश्क़ है
कृष्ण
शिकवा-ए-ग़म तिरे हुज़ूर किया
आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी
बर्क़ को अब्र के दामन में छुपा देखा है
पुर्सिश-ए-हाल पे है ख़ातिर-ए-जानाँ माइल