शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना
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ख़ूब-रूयों से यारियाँ न गईं
तिरे दर्द से जिस को निस्बत नहीं है
क्या वो अब नादिम हैं अपने जौर की रूदाद से
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
दिल में क्या क्या हवस-ए-दीद बढ़ाई न गई
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है
बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा
हुस्न-ए-बे-मेहर को परवा-ए-तमन्ना क्या हो
दीदनी हैं दिल-ए-ख़राब के रंग
नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती
मुदावा-ए-दिल-ए-दीवाना करते